अब्दुल्लाह बिन मसूद (रज़ि.) ने एक बार कहा था: [1]
अपने इस्लाम को सार्वजनिक रूप से घोषित करने वाले पहले सात लोग थे: अल्लाह के दूत (ﷺ), अबू बक्र, अम्मार और उनकी माँ सुमैय्याह, सुहैब, बिलाल और मिक़दाद।
हज़रत सुमैय्याह बिन्त ख़य्यात (रज़ि.) इस्लाम में पहली शहीद महिला साथी थीं। वह अबू हुज़ैफ़ाह इब्न अल-मुगिराह की सेवा में थीं, जिसने बाद में उनकी शादी यमन के यासिर बिन अम्मार (रज़ि.) से कर दी, जो मक्का आए और वहीं रहने लगे थें। उन्हें एक बेटे का आशीर्वाद मिला था, जिसका नाम उनके पिता, यासिर के नाम पर,अम्मार बिन यासिर रखा गया था।
हज़रत सुमैय्याह (रज़ि.), अपने पति और बेटे के साथ, सबसे शुरुआती लोगों में थीं जो पैग़म्बर मुहम्मद (ﷺ) के भविष्यवक्ता और संदेश में विश्वास करते थें। वह इस्लाम अपनाने वाली सातवीं व्यक्ति थीं। हज़रत सुमैय्याह (रज़ि.) और उनके परिवार के सदस्यों ने अपने विश्वास को गुप्त नहीं रखा। उन्होंने सार्वजनिक रूप से ख़ुद को मुसलमान घोषित किया। जब अविश्वासियों को पता चला कि उन्होंने इस्लाम क़बूल कर लिया है, तब हज़रत सुमैय्याह (रज़ि.) और उनके परिवार को मक्का के जलते रेगिस्तान में ले जाया गया। क़ुरैश द्वारा उन्हें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से प्रताड़ित किया गया, जो उन्हें बुतपरस्ती में बदलने की कोशिश कर रहे थे। हालाँकि, हज़रत सुमैय्याह (रज़ि.) ने एक दृढ़ रुख बनाए रखा।
पैग़म्बर मुहम्मद (ﷺ) वहां जाते थे जहां उन्हें प्रताड़ित किया जाता था, उनके साहस की प्रशंसा करते हुए कहते थे, “धीरज रखो, यासिर के परिवार। निश्चय ही तुम्हारा मिलन स्थल जन्नत होगा।”
उन्होंने अत्यधिक कठिनाइयों का सामना किया जिसने उनके विश्वास का परीक्षण किया, लेकिन वे दृढ़ रहें और धैर्यवान बने रहें, यह जानते हुए कि सत्य का मार्ग अक्सर कठिनाइयों से भरा होता है।
आख़िरकार, बूढ़े होने के नाते, हज़रत यासीर (रज़ि.) यातना सहन नहीं कर सकें, और अल्लाह और उसके दूत (ﷺ) की राह में शहीद हो गए। यद्यपि उनके पति, हज़रत यासिर (रज़ि.) उनकी आंखों के सामने शहीद हो गए थे, लेकिन क़ुरैश के मूर्तिपूजक हज़रत सुमैय्याह (रज़ि.) को परिवर्तित करने में विफल रहे। लंबे समय तक उन्हें प्रताड़ित करने के बाद, अबू जहल ने उन्हें अपने भाले से वार किया, जिससे वह शहीद हो गईं।
यासिर (रज़ि.) और उनकी पत्नी सुमैय्याह (रज़ि.) की हत्या कर दी गई थी जब उन्होंने इस्लाम की निंदा करने से इनकार कर दिया था, लेकिन उनके बेटे अम्मार बिन यासिर को बख़्श दिया गया था जब उन्होंने इस्लाम की निंदा करना स्वीकार किया था। इस घटना के बारे में अल्लाह (ﷻ) ने नीचे लिखी आयत नाज़िल की: [2]
जिसने अल्लाह के साथ कुफ़्र किया, अपने ईमान लाने के पश्चात्, परन्तु जो बाध्य कर दिया गया हो, इस दशा में कि उसका दिल ईमान से संतुष्ट हो, (उसके लिए क्षमा है)। परन्तु जिसने कुफ़्र के साथ सीना खोल दिया हो, तो उन्हीं पर अल्लाह का प्रकोप है और उन्हीं के लिए महा यातना है।
हज़रत सुमैय्याह (रज़ि.) और उनके पति इस्लाम में पहले शहीद हुए। ऐसे लोगों के लिए अल्लाह ने क़ुरान में नाज़िल किया: [3]
निःसंदेह अल्लाह ने ईमान वालों के प्राणों तथा उनके धनों को इसके बदले ख़रीद लिया है कि उनके लिए स्वर्ग है। वे अल्लाह की राह में युध्द करते हैं, वे मारते तथा मरते हैं। ये अल्लाह पर सत्य वचन है, तौरात, इंजील और क़ुर्आन में और अल्लाह से बढ़कर अपना वचन पूरा करने वाला कौन हो सकता है? अतः, अपने इस सौदे पर प्रसन्न हो जाओ, जो तुमने किया और यही बड़ी सफलता है।
संदर्भ
- इब्न माजह खंड 1, पुस्तक 1, हदीस 15
- क़ुरआन 16:106 (सूरह अन-नहल)
- क़ुरान 09:111 (सूरह अत-तौबा)